लोगों की राय

कहानी संग्रह >> जमा पूँजी

जमा पूँजी

द्रोणवीर कोहली

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3367
आईएसबीएन :81-7016-602-0

Like this Hindi book 12 पाठकों को प्रिय

392 पाठक हैं

हिंदी के प्रख्यात उपन्यासकार द्रोणवीर कोहली का प्रथम एवं एकमात्र कहानी-संग्रह

jama punji

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिंदी के प्रख्यात उपन्यासकार द्रोणवीर कोहली के इस प्रथम एवं एकमात्र कहानी-संग्रह ‘जमा-पूँजी’ की कहानियों को पढ़ते हुए लेखक की कथा-वर्णनात्मकता, भाषा-अनुशासन, संयम तथा इनमें पिरोई गई मार्मिक अनुभूतियों से सहज ही प्रभावित हुआ जा सकता है। अपने सामान्य मगर ठोस कथानक के चलते पाठक इनकी प्रथम पंक्ति से ही बँध एवं बिंध जाता है तथा लेखक धीरे-धीरे कथा की परिवरिश करते हुए ऐसा विश्वसनीय बना देता है मानो वह अपने पाठक से एकमेक होकर विचार विनिमय कर रहा हो। पठनीयता को ऐंठकर, रोचक बनाने की चाह या पाठक को कथा के माध्यम से ‘पट्टी पढ़ाने’ की अपेक्षा इस लेखक में नहीं पाई जाती है।

यद्यपि विभिन्न परिवेशों, पात्रों एवं परिस्थितियों के रंगों से कहानी की तस्वीर उकेरना इस कथाकार को आता है तथापि उनके अधिकांश पात्र उस वंचित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपनी अत्यंत सीमित दुनिया में अभावों-तले बिजबिजा रहे हैं, जहाँ दाना-पानी का जुगाड़ किसी मन्नत माँगने से कम नहीं, और जहाँ आर्थिक विषमाताएँ-विपदाएँ रक्त-संबंधों को भी प्रदूषित कर देती हैं। शोक, हास-विनोद और विषाद की अनबोली स्थितियों  को ज़बान देना भी इस कहानीकार को खूब आता है।

विगत कुछ दशकों में जब-तब लिखी गई ये कहानियाँ हमें निम्न-मध्यवर्गीय समाज के जिजीविषारत उस समय में भी ले जाती हैं जब अँगीठियों का धुआँ हमारे महानगरीय जीवन की कड़वाहट को तिक्त कर देता था और चिंताएँ अठन्नी-चवन्नी की हुआ करती थीं। इस प्रकार ये कहानियाँ अपने समय का कोरस हैं तथा हमारे विगत का स्वाभाविक सामाजिक चित्रण भी।

अपने समय, समाज और मनुष्य की संपूर्ण संघर्षमयी जिजीविषा से सन्नद्ध ये कहानियाँ हमारा भूत, वर्तमान और निश्चित ही भावी भी हैं। हिंदी कहानी की परिपाटी को जानने का अवसर भी इन कहानियों में मौजूद है।

सफाई देने की ज़रूरत तो न थी !


फिर भी...धर्म तो निभाना ही पड़ता है न !
सबसे पहले तो मैं यह कहना चाहूँगा कि संग्रह की किसी कहानी को लेकर पुस्तक का नामकरण करना मैं उचित नहीं समझता। कोई यदि ऐसा करता है, तो इससे यही ध्वनित होता है कि लेखक उस कहानी को संग्रह की श्रेष्ठ अथवा प्रिय कहानी मानता है और, मैं समझता हूँ, यह पाठक पर लेखक की अपनी पसंद लादने के समान है।

बरसों पहले किसी विदेशी लेखक का कहानी-संग्रह मेरे हाथ लगा था, जिसका नाम था ‘वर्क सस्पेंडिड’। किताब का यह शीर्षक रखने के लिए लेखक ने यह सफाई दी थी कि वह कहानी को महत्त्वपूर्ण विधा नहीं मानता और जब उपन्यास आदि लिखने के ‘अधिक महत्त्वपूर्ण’ काम से फुरसत पाता है, तो उस अंतराल में ही कहानियाँ लिखता है। दूसरे शब्दों में, उसकी यह निजी राय थी कि कहानी लिखना सहज और फालतू काम है। कवि श्रीकांत वर्मा ने भी कुछ अच्छी कहानियाँ लिखीं, लेकिन इस विधा पर कविता को ही तरजीह देते थे। लगता है, इन साहित्यकारों ने ऐसी धारणा संभवतः इसलिए बनाई, क्योंकि कहानी लिखना अति कठिन कार्य है, यहाँ तक कि बच्चों के लिए कहानी लिखना उससे भी दुष्कर है। मुझे तो ऐसा ही लगता है।

मैंने सतरह-अठारह बरस की उम्र में सत्यव्रत द्वारा संपादित पत्रिका ‘मनमोहन’ के मार्च, 1950 अंक में प्रकाशित हुई थी। सत्यव्रत के रूप में एक ऐसे संपादक मिले थे, जो नए से नए लेखकों को लगातार उत्साहित करते रहते थे। मुझ जैसे नए लेखक से रचना माँगते समय एक बार उन्होंने यह लिखा था : ‘‘मेरी झोली खाली है।’’ इसके बावजूद, बच्चों अथवा बड़ों के लिए कहानी-क्षेत्र में मैं अधिक कुछ नहीं कर पाया। आज लगभग 53 वर्ष हो गए लिखते हुए। जीवन के उत्तरार्द्ध में आठ उपन्यास लिखे, जिनमें से तीन तो चार-चार सौ पृष्ठों के हैं। लेकिन इस लंबी अवधि में अभी तक कुल जमा बीसेक कहानियाँ ही लिख पाया हूँ, और इनमें से भी कुल बारह कहानियों को मैंने इस संग्रह में लिया है; बाकी कहानियों को दुबारा पुस्तकाकार छपवाना मैं उचित नहीं समझता।

‘कल्पना’ के अक्तूबर, 1946 अंक में जब मेरी पहली कहानी ‘तीसरे प्राणी के लिए जुगाड़’ छपी-यह शीर्षक ओंप्रकाश निर्मल ने दिया था-तो उस पर यशपाल जी की नज़र पड़ी थी। यह वो ज़माना था जब नई कहानी-अकहानी-सचेतन कहानी का शोर था और स्वनामधन्य लेखक-आलोचक कहानी की चीरफाड़ करके इस लेखक को उठाने, उस लेखक को गिराने में लगे थे। जिन लेखकों-आलोचकों ने कहानी लिखने की प्रसव पीड़ा कभी झेली नहीं, और नहीं जानते कि लेखक कहानी कैसे और कहाँ से उठाता है, वे भी कहानी को लेकर फतवे दे रहे थे। ऐसे में यशपाल जी ने ‘नई कहानियाँ’ के अप्रैल, 1965 अंक में प्रकाशित अपने एक इंटरव्यू में मेरी उपर्युक्त कहानी की तारीफ करते हुए कहा था कि यह कहानी ‘‘बहुत अच्छी है और साथ ही ‘नई’ है...इसलिए नई है कि उसमें समस्या सामाजिक और नितांत सामयिक (रूढ़ अर्थ में सामाजिक नहीं) ली गई है। उसकी समस्या और उसमें दिया गया आचरण आज की परिस्थितियों की उपज है।’’

किसी भी नए लेखक के लिए यह बहुत बड़ा प्रोत्साहन था-पहले तो ‘कल्पना’ में पहली बार छपना और फिर एक शीर्षस्थ लेखक द्वारा सराहा जाना। लेकिन मेरी यह धारणा है कि उन दिनों यशपाल जी ने एक नए लेखक की प्रशंसा के ब्याज से उस ज़माने में अपनी डोंडी पीटने और पिटवाने वाले चर्चित लेखकों की हवा निकालने के लिए ऐसा लिखा था। फिर भी, मनोबल बढ़ाने वाला यह एक बहुत बड़ा घटक था। इसके बावजूद, मैं अधिक कहानियाँ नहीं लिख सका।
बच्चों या किशोरों के लिए लिखने में तो मैं मुँह के बल गिरा हूँ।

कहने का तात्पर्य यह कि मैं न तो सफल बाल-लेखक बन सका और न बड़ों के लिए ज़्यादा कहानियाँ ही लिख सका, हालाँकि मेरे पास इतने नोट्स रखे हैं, जिनके आधार पर कम से कम पच्चीस-तीस कहानियाँ तो लिखी ही जा सकती हैं। लेकिन इस उम्र में भी चार-पांच सौ पृष्ठों का उपन्यास लिखने में समर्थ हूँ लेकिन आठ-दस पन्नों की कहानी लिखने के लिए कलम उठाता हूँ, तो पहले वाक्य पर ही अटक जाता हूँ, आत्मविश्वास जगाने के लिए विभिन्न लेखकों की कहानियाँ पढ़ना शुरू कर देता हूँ, यह जानने के लिए कि कहानी कैसे लिखी जाती है। और जब कई-कई ड्राफ्ट तैयार करने के बाद किसी कहानी को अंतिम रूप दे लेता हूँ, और चारों तरफ नज़र दौड़ाता हूँ, तो ऐसी कोई पत्रिका दिखाई नहीं देती, जिसमें संतुष्टि हो। स्थिति एकदम बदल गई है। एक ज़माना था जब उच्चकोटि की ढेंरों पत्रिकाएँ थीं, जिनमें छपना लेखक के लिए गौरव की बात समझी जाती थी। आज एक भी ऐसी पत्रिका दिखाई नहीं देती, या जो एक-दो हैं भी, तो संपादक की कुर्सी को सुशोभित करने वाले लोग मत्सर और पूर्वग्रह से ग्रस्त हैं या काहिल हैं। मेरी एक रचना एक सुप्रसिद्ध कहानी पत्रिका के संपादक ने छापने का वादा करके अपने पास रख ली थी। जब साल-भर बाद भी नहीं छपी, तो मैंने संपादक महोदय को याद दिलाया। पान चबाते हुए बड़े विस्मय और स्नेहसिक्त वाणी से उन्होंने मुझे ही दोष दिया था, ‘‘यार, तुमने याद ही नहीं दिलाया !’’

अपने इस संग्रह में सम्मिलित कहानियों के बारे में यह बताने में मुझे कोई संकोच नहीं कि इनमें कहीं न कहीं मेरी निजी उपस्थिति भी दर्ज है-पार्टीशन के बाद भरे-पूरे परिवार में एक अनाथ की-सी स्थिति को मैंने भोगा है, क्लर्क-टाइपिस्ट की ज़िंदगी का भटकाव भी देखा है और उस नौकरी का आकर्षण-विकर्षण भी, जिसमें मात्र तीन रुपए की सालाना इनक्रीमेंट के लिए साल-भर हम लोग बाट जोहा करते थे; घर में बूट पॉलिश बनाने वाले उस लँगड़े लड़के को झुलसाने वाली तपिश भी मेरे बदन ने झेली है; बूँद-बूँद पानी के लिए और सिर पर करीने की छत के लिए भी तरसा हूँ।

अंत में मैं इस संग्रह की कहानी ‘यह शास्त्रोक्त नहीं’ के बारे में विशेष रूप से पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा।
यह कहानी पहले-पहल ‘रविवार’ में छपी थी, जिसका शीर्षक भी और अंत भी यहाँ दी गई कहानी के शीर्षक और अंत से भिन्न था। वास्तव में, इस कहानी की सारी सामग्री मेरे एक सहयोगी और मित्र मैथ्यू चांडी-अब दिवंगत-ने दी थी। मलयालीभाषी चांडी अत्यंत मृदु स्वभाव का, संस्कृतज्ञ, अंग्रेज़ी और मातृभाषा मलयालम पर पूर्ण अधिकार रखनेवाला अल्पभाषी व्यक्ति था। ईसाई होने के बावजूद रामायण और महाभारत के अनेक श्लोक उसे कंठस्थ थे और कालिदास, भास आदि की रचनाओं के बारे में साधिकार बात किया करता था। उसी ने अपनी यह आपबीती मुझे सुनाई थी और कहानी की शक्ल में छपवाने की छूट भी दी थी। चांडी ने निःसंकोच बताया था कि अपने पहले नवजात शिशु की मृत्यु का समाचार सुनकर वह इस तरह सुन्न हो गया था कि जी.बी. रोड के चकले में चला गया था। लेकिन एक सरलहृदय व्यक्ति के मुख से किस्सा सुनने के बावजूद यह बात मेरे गले से नहीं उतरी थी। सो, मैंने इसका अंत बदल दिया था और उसे वेश्या के कोठे के निकट ले जाकर भी लौटा दिया था। शायद हम पर थोपी जाने वाली सूडो-नैतिकता अथवा श्लील-अश्लील की संदिग्ध भावना थी या मूल स्थिति का वर्णन करने पर कहानी न छपने का भय था कि मैंने यह परिवर्तन किया था।

लेकिन इस कहानी का एक दूसरा पहलू भी है। क्या, सचमुच, अपने नवजात शिशु की मृत्यु का समाचार पाकर चांडी इतना ‘डि-ह्यूमिनाइज़’ (यह उसका ही कथन था) हो गया था कि उसने कोठे की तरफ मुख किया था ? कहीं ऐसा तो नहीं कि चांडी ने-बहुपठित व्यक्ति तो वह था ही-कामू के ‘आउटसाइटर’ के प्रमुख पात्र का अनुकरण करते हुए सारा किस्सा गढ़कर मुझे सुनाया था ? हालाँकि यह कहानी लिखने से बहुत पहले मेरे ज़हन से एकदम निकल ही गई थी। बाद में ‘आउटसाइडर’ के बारे में कहीं मैंने सार्त्र की यह उक्ति पढ़ी, तो औचक सारी स्थिति स्पष्ट हो गई थी। सार्त्र ने ‘आउटसाइडर के बारे में यह लिखा था; ‘‘इस पात्र के बारे में हम सफाई क्यों देंगे जो अपनी माँ की मौत के बाद तैरने के लिए निकल गया, एक छोकरी के साथ उसने जार-संबंध स्थापित किया और एक कामिक फिल्म भी देखी !’’
आज मुझे लगता है कि चांडी जैसा स्पष्टवादिता करने वाला व्यक्ति झूठ नहीं बोला था; ‘आउटसाइडर’ से प्रभावित होकर ही उसने अपने आपको उस स्थिति में डाला होगा।

-द्रोणवीर कोहली

आशा तो बड़ी खुश है !
‘‘उइ मैं ! हमें जाने दो। हमें नहीं रहना यहाँ...’’
बारह तेरह बरस की उस लड़की ने चीख-चीखकर सारे ‘रिमांड होम’ को सिर पर उठा रखा था। खिड़की की सलाखों को दोनों हाथों से पकड़े सुबह से गुहार कर रही थी: ‘‘हम हाथ जोड़ते हैं, पैर पड़ते हैं। हमें जा-अ-ने-दो...’’
सूरज काफी चढ़ आया था, लेकिन सावन की बदली के कारण धूप नहीं निकली थी। उमस के मारे बुरा हाल था। रिमांड होम की अधीक्षिका छुट्टी पर थी उस दिन और केस वर्कर शोभा लड़कियों को कलेवा करवाने के बाद श्लथ-सी दफ्तर में बैठी अपने गर्भस्थ शिशु के लिए मोज़ा-टोपा बुन रही थी। बाकी लड़कियाँ हॉल कमरे में थीं और सहमी-सहमी नज़रों से देख रही थीं, जैसे एक-दूसरे से कह रही हों-रोटी की चोरी करोगी, तो इसी तरह सीखचों वाले कमरे में बंद कर दी जाओगी...
‘‘उइ माँ ! हमें जा-अ-ने-दो...’’

शोभा ने क्षुब्ध होकर बुनाई मेज़ पर पटकी और कुर्सी पीछे धकेलकर खड़ी हो गई। कोने में पतली छड़ी रखी थी। लपककर उठाई और तेज़ी से चलकर बरामदे में आई।
‘‘उइ माँ...’’ लड़की जैसे चुप होने का नाम नहीं लेती थी। शोभा ने खिड़की के निकट जाकर छड़ी दिखाते हुए डपटा, ‘‘देख, अब तू खामोश हो जा ! बहुत हो चुका। अगर चुप नहीं बैठेगी, तो इस छड़ी से मार-मारकर चमड़ी उधेड़ दूँगी। चुड़ैल कहीं की ! सुबो से उई माँ, उइ माँ चिल्ला रही है...सिर्दर्द कर दिया है...’’
लेकिन लड़की पर इस धमकी का भी कोई असर नहीं हुआ। सीखचों को कसकर पकड़े वह जैसे दुहाई दे रही थी, ‘‘हमें खो-अ-लो। हमें जा-अ-ने-दो..उइ माँ, हमें नहीं रहना यहाँ।’’

शोभा का मन करता था कि सलाखों पर कसी इस लड़की की उँगलियों की गाँठों पर छड़ी मार-मारकर लहूलुहान कर डाले। लेकिन इस झड़ाके की नौबत नहीं आई। बाहर के गेट पर आकर टैक्सी-स्कूटर रुका था और उसमें से चंचल उतरकर भीतर आ रही थी। कंधों तक कटे बालों वाली उन्नीस-बीस बरस की यह तन्वंगी, दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क की छात्रा थी और सप्ताह में दो दिन कुछ घंटों के लिए रिमांड होम आया करती थी। सफेद शर्ट, नीली जींस और स्नीकर्स में थी। बगल में कुछ किताबें और कंधे से लटकता झोला। बालों में उँगलियों से कंघी करते हुए वह चुस्त चाल से बरामदे में आई। फर्श पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। लड़कियों को यहीं बैठाकर भोजन कराया जाता था। लगता था, कई दिनों से स्वीपर नहीं आई थी। एक तो बरसाती मौसम, फिर ऊपर से इतनी गंदगी !
चंचल को देखते ही शोभा ने जैसे चैन की साँस ली।

‘‘अच्छा हुआ, तू आ गई, चंचल ! अब तू ही सँभाल इस बदशक्ल, बदलगाम लौंडिया को। सवेरे से मरदूद ने नाक में दम कर रखा है।’’
यह कोई नई बात नहीं थी। रिमांड होम आने वाली लड़कियाँ इसी तरह रोती-चीखती-चिल्लाती थीं। इसलिए चंचल ने सरसरी नज़र खिड़की पर डाली। इतना भर लक्ष्य किया कि सीखचों के पीछे मैले चेहरे वाली लड़की खड़ी है, जिसके सूखे, अस्त-व्यस्त केश उसके चेहरे पर पड़ रहे हैं और रो-रोकर उसने बुरा हाल कर लिया है : ‘‘उइ माँ, हमें यहाँ नहीं रहना...’’
शोभा और चंचल दफ्तर में आ गईं। चंचल कह रही थी, ‘‘स्वीपर आई नहीं लगती। लड़की को क्यों बंद कर रखा है ?’’
शोभा बता रही थी, ‘‘पिछले हफ्ते ही आई है। जी.बी. रोड पर एक रेड में पकड़ी गई थी। बारह-तेरह बरस से ज़्यादा उम्र की नहीं लगती, लेकिन है पक्की चोरनी ! सुबह रोटियाँ छिपाकर ले जा रही थी-जानती हो कहाँ ?-यहाँ चड्डी में डालकर। पकड़ लिया, तो चुड़ैल लगी गालियाँ बकने। ऐसे-ऐसे फक्कड़ तौलती है-मर्दानी गालियाँ देती है कि तुम कानों पर हाथ धर लोगी। मैंने भी पकड़कर बंद कर दिया साली को। पड़ रह यहाँ...तब से हाय-तौबा मचाए है...’’ कहते-कहते उसने दराज़ खोलकर एक फाइल निकाली, ‘‘यह रही इसकी केस हिस्टरी !’’ फिर जैसे विनती करते हुए बोली, ‘‘चंचल, प्लीज़ ! मुझे डिस्पेंसरी जाना है, चेकअप करवाने थोड़ी देर भी हो सकती है। सुपरिंटेंडेंट आज लीव पर है। थोड़ा सँभाल लो, तो मैं निश्चिंत होकर जाऊँगी। प्लीज़ !’’ और उसने मैले दाँत दिखाए।

लड़की बदस्तूर चीख रही थी, ‘‘उइ माँ, हमें जाने दो। खो-अ-लो...’’
शोभा भन्ना उठी और दोनों कानों पर उसने हथेलियाँ रख लीं।
‘‘कमबख्त चीखती है, तो आदमी पागल हो जाए...’’
चंचल उसकी भाव-भंगिमा देख थोड़ा मुस्कराई। हालाँकि उसे इस तरह का कोई तजुर्बा नहीं था, फिर भी एक अनुभवी स्त्री की तरह बोली, ‘‘माँ बनने वाली औरत लूँगी। ज़रा चौकीदार को भेजते जाना।’’

शोभा ने होंठ बिचकाकर कहा, ‘‘लगता है, इस पिग-स्टाइ (सूअर-बाड़े) में ही सारी ज़िंदगी निकल जाएगी-भिखारिनों, जेबकतरियों, प्रॉस्टिट्यूट्स, वीडी की मारी लड़कियों के बीच...’’
‘‘तुम मैटरनिटी लीव पर कब जा रही हो ?’’ चंचल ने पूछा।
‘‘अभी कहाँ ! दो-ढाई महीने की देर है। पहला बच्चा है। सोचती हूँ, यह नौकरी ही छोड़ दूँ।’’ शोभा ने बैग कंधे से लटकाते हुए कहा, शायद मैजिस्ट्रेट भी आज आए। ज़रा देख लेना, प्लीज़...’’ यह कह वह जल्दी-जल्दी वहाँ से निकली।
चंचल उसे जाते हुए देख रही थी। ‘‘पुअर गर्ल !’’ मुस्कुराते हुए धीरे से बुदबुदाई और फिर उस लड़की की केस हिस्टरी के पन्ने पलटने लगी।

अब उसकी आवाज़ नहीं आ रही थी। जैसे थक-हारकर चुप हो गई थी।
थोड़ी देर बाद दरवाज़े में से आती हुई रोशनी में व्यवधान पड़ा, तो चंचल ने सिर उठाकर देखा। अधेड़ अवस्था का चौकीदार खड़ा था।
‘‘इंदर !’’ चंचल ने आदेश दिया, ‘‘उस कमरे का ताला खोलो।’’
चंचल ने केस हिस्टरी वहीं रख दी और उठकर खड़ी हो गई। आई, तो चौकीदार ताला खोलकर बरामदे में खड़ा प्रतीक्षा कर रहा था।
‘‘तुम जाओ।’’ इंदर को जाने के लिए कहकर चंचल भीतर चली गई। लड़की सामने दीवार के साथ ढासना लगाए ज़मीन पर बैठी चंचल को भीतर आते हुए बिटर-बिटर देख रही थी।

चंचल धीरे-धीरे जाकर उसके सामने खड़ी हो गई। लड़की मुँह उठाए चंचल को अपलक देख रही थी।
‘‘तुम्हारा नाम आशा है न !’’ चंचल जाकर धीमे-से-लड़की के सामने पैरों के बल बैठ गई। लड़की ने चंचल की तरफ अपलक देखते हुए धीरे से सिर हिलाकर हामी तो भरी, लेकिन कुछ पल संशय से देखती रही।
चंचल ने कहा, ‘‘आओ, मेरे साथ।’’

चंचल खड़ी हुई, तो आशा भी खड़ी हो गई। उसका कद ठिंगना और शरीर फैला-फैला था। रिमांड होम के खादी के बने गुलाबी फ्रॉक में उसका शरीर जैसे समाए नहीं समाता था। उस फ्रॉक के उपयुक्त उसका ढाँचा ही नहीं था, जो न अब बालिका रही थी, न स्त्री की श्रेणी में आती थी, जैसे असमय ही उसके शरीर का विकास हो गया था। फ्रॉक के नीचे बनियान या ब्रा वगैरह न होने से छातियाँ किसी अधेड़ स्त्री की तरह लटकी हुई थीं। कूल्हे असमय ही भारी हो गए थे। चेहरा साँवला और फूला-फूला-सा। अनीमिया को रोगिणी लगती थी, लेकिन सारे बदन पर आँखें ऐसी थीं जो एकदम बोलती लगती थीं और जिनमें अब भी बालसुलभ चंचलता शेष थी।

चंचल ने उसे कंधे में समेटेते हुए अपने साथ सटा लिया और जैसे दुलराते हुए कहा, ‘‘चलो, दफ्तर में बैठकर बातें करेंगे।’’
चौकीदार बरामदे में खड़ा था। उसे चंचल ने आदेश दिया, ‘‘स्वीपर को बुलाओ। यह वक्त होने जा रहा है, अभी तक सफाई करने नहीं आई। मेरा नाम लेकर कहो उससे।’’
हॉल कमरे में छोटी-छोटी बच्चियाँ खिड़कियों-दरवाज़ों में से झाँक-झाँककर देख रही थीं कि किस स्नेह से चंचल बहन जी उस लड़की को बाँहों में समेटे अपने साथ लिए जा रही हैं। एक-दो स्वर मुखर भी हुए, लेकिन फिर जैसे एकदम निःस्तब्धता छा गई। कहीं ऐसा न हो कि आवाज़ सुनकर चंचल बहन जी गुस्सा करें, शोभा बहन जी की तरह।
शोभा मोज़ा टोपा वहीं मेज़ पर ही छोड़ गई थी। चंचल ने आकर उसे दराज़ में डाला और एक खाली कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए आशा से कहा, ‘‘आशा, बैठ जा।’’

आशा कुर्सी पर न बैठ, नीचे ज़मीन पर बैठ गई।
‘‘अरेरेरे, नीचे क्यों बैठती है ?’’ चंचल ने आपत्ति की, ‘‘मैंने तुमसे कुर्सी पर बैठने को बोला था। ऊपर बैठो।’’
काफी इसरार के बाद आशा कुर्सी पर बैठ तो गई, लेकिन कुछ इस तरह कि वहाँ बैठने में उसे बड़ी असुविधा हो री हो। चंचल ने उसे आश्वस्त करने की खातिर स्नेहपूर्वक कहा, ‘‘आशा ! आराम से बैठो। मैं तुमसे ज़्यादा बड़ी थोड़ा हूँ। तुम कितने साल की हो ?’’

आशा को अपनी उम्र का कोई अंदाज़ा नहीं था। चंचल ने कहा, ‘‘इन कागज़ों में तुम्हारी उम्र बारह-साल लिखी है। हमारी उम्र उन्नीस है। अभी हम कॉलेज में पढ़ती हैं। हम तुमसे ज़्यादा बड़ी थोड़े हैं। आराम से बैठो। डरने की कोई बात नहीं।’’
संभवतः जीवन में पहली बार आशा को इतने अपनत्व-भरे शब्द सुनने को मिले थे, नहीं तो लगातार उपेक्षा, झिड़कियाँ, दुर्व्यवहार, डाँट-फटकार ही उसके पल्ले पड़ी थी। बैठी-बैठी सिर खुजला रही थी।

चंचल ने मुस्कुराते हुए उसकी तरफ देखा और चुहल की, ‘‘अच्छा, तो आपके सिर में जुएँ हैं ! बाल नहीं धोती हो न ! ठीक है, बालों को थोड़ा छोटा करवा देंगे और साबुन से धोएँगे, तो जुएँ नहीं रहेंगी। कटवाकर अपनी तरह तुम्हारे बाल भी इतने छोटे करवा देंगे। ठीक ?’’

आशा ने नज़र भरकर चंचल के कंधों तक कटे बालों की तरफ देखा तो सही, लेकिन फिर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
चंचल ने केस हिस्टरी के पन्ने पलटते हुए पूछा, ‘‘आशा, तुम यहाँ कैसे आई ?’’
‘‘पुलिस पकड़के ले आई !’’ आशा ने अप्रत्याशित रूप से दो टूक जवाब दिया।
‘‘पुलि, क्यों पकड़के लाई ? क्या कर रही थी ?’’
आशा ने नज़रें झुका लीं और कोई जवाब नहीं दिया।

‘‘आशा, बोलो।’’ चंचल ने बड़े प्यार से पूछा। ‘‘सारी बात बताओ। हम तुम्हारी मदद करेंगे। इसीलिए तो हम यहाँ आते हैं।’’
आशा ने सिर उठाकर चंचल की तरफ मोटी-मोटी आँखों से देखा। उनमें पानी भरने लगा था। आँसू जैसे गिरे कि गिरे। भीतर उसके कुछ उबल-सा रहा था। फिर एकाएक वह जैसे फट पड़ी, ‘‘सब लोगगंदे हैं यहाँ के ! मारते हैं !’’ और उसके आँसू टपटप गिरने लगे।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book